जानिये… क्यों अब की बार-चार सौ पार के लक्ष्य भेदन से चूकी भाजपा कैसे संघ की उपेक्षा ने डुबोई उम्मीदों की नैया


ललित शर्मा

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राम्-राम् मित्रो,
मंगलवार 4 जून को अठारहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम अधिकांश लोगों को अप्रत्याशित लग रहे हैं परन्तु ये जनादेश मेरे जैसे चाटुकारिता से दूर लोगों के लिये पूर्णतः अपेक्षित था।अरे भईया! तनिक दिमाग़ लगाओ कि जिस आरएसएस में सदैव व्यक्तिवाद के बजाय विचार को महत्व दिया जाता रहा हो वो कैसे और कब तक किसी व्यक्ति मात्र को ब्रांड बनाकर सर पर बिठाता रहेगा।ये सच है कि आदरणीय मोदी जी ने अपने कुशल नेतृत्व और अमित शाह ने अपने विलक्षण रणनीतिक कौशल के चलते पार्टी को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया परन्तु मत भूलिये कि आसमान में ऊंचाई पर उड़ने के लिये पतंग को मजबूत डोर से बंधा होना नितांत आवश्यक है।आज भाजपा यदि विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनी है तो कहीं ना कहीं इसके पीछे संघ की कई दशकों की तपस्या है।स्थापना के बाद से ही यदि पार्टी चुनाव दर चुनाव में दो सांसदों के बाद पूर्ण बहुमत के स्तर को छू पायी तो इसमें लाखों-करोड़ों स्वयंसेवकों की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता।
देखने में आया है कि पिछले कुछ वर्षों से संघ के प्रति सम्मान और समर्पण के स्तर में कुछ कमी सी आयी है।ये स्वयंसेवक ही होते हैं साहब ! जो हर चुनाव में गली-गली घूमकर,घर-घर जाकर प्रत्येक परिवार के सदस्यों को आत्मीयता के भाव के साथ वोटर पर्ची थमाने के साथ ही उनके मतदेय स्थल तक पहुंचने के लिये जान लगा देते हैं,वो भी पूरे निस्वार्थ भाव के साथ।
मोदी जी भी राजनीतिज्ञ बाद में बने,पहले स्वयंसेवक ही तो थे।कभी शंकर सिंह बघेला के साथ साईकिल पर बैठकर वे गुजरात में संघ की विचारधारा को सींचने में लगे हुए थे।मुझे घोर आश्चर्य है कि ऐसे राष्ट्रवाद के प्रहरी के सामने ही स्वयंसेवकों की महता और उपयोगिता को कम आंका जाने लगा ! विचार के बजाय व्यक्तिवाद का पार्टी में बोलबाला होने लगा ? क्यों “अब की बार-चार सौ पार” का लक्ष्य तो दूर “अब की बार-तीन सौ पार” का आंकड़ा छूने में भी एनडीए हांफने लगा ? सवाल उठ रहे हैं कि क्या मोदी का जादू नहीं चल पाया ? क्या राम मंदिर के मुद्दे को पार्टी चुनाव में सही ढंग से नहीं भुना पाई ? क्या देश के जनमानस ने धारा 370,तीन तलाक,बालाकोट,सर्जिकल स्ट्राइक,भ्रष्टाचार पर लगाम,सैन्य आधुनिकीकरण के साथ ही भारत के विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने को मोदी सरकार की उपलब्धि मानने से इनकार कर दिया ? क्या वाकई देशवासियों की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर हो गयी है ?
जी नहीं,मेरा मानना है कि गूगल बाबा/सोशल मीडिया के दौर मे ऐसा कदापि संभव नहीं हो सकता,तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि भाजपा के अबकी बार-चार सौ पार के लक्ष्य भेदन की उम्मीदों के साथ ही एग्जिट पोल के आंकड़े भी धड़ाम हो गये ?
तो मित्रो लक्ष्य तय करना तो आसान है लेकिन उसे धरातल पर उकेरना उतना ही कठिन होता है और असंभव को संभाव्यता की पटरी पर दौड़ाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तपस्वी स्वयंसेवको को महारत हासिल है।आप ही बताइये इस चुनाव में आपने अपने आसपास कितने स्वयंसेवकों को डोर टू डोर मतदाताओं को मतदान के लिये प्रेरित करते हुए देखा ! बताओ तो मतदान स्थल पर आपने चश्मा लगाये कितने स्वयंसेवकों को हाथ में पैन/पेन्सिल थामे वोटर लिस्ट को खंगालते हुए देखा था? नहीं ना, बस समझ लीजिये कि पार्टी की उम्मीदों को पलीता लगाने वाले कुछ कारणों में स्वयंसेवकों की उपेक्षा भी एक अहम कारण रही है।
“आपको एक दिलचस्प किस्सा बताता हूँ कि-जिले में एक मंडल स्तर के पदाधिकारी को बूथों पर बस्ते बांटने का जिम्मा सौंपा गया था।महाशय ने दहाई के अंक में बस्ते ही डकार लिये और व्यवस्था के निमित्त प्रति बस्ता जो भी रकम आयी वो भी अपनी अंटी कर ली ।”
सोचिये ऐसा कितनी जगह हुआ होगा? संघ के तपे तपाये स्वयंसेवकों की अनुभवी आँखों के सामने ऐसी कारगुजारी को अंजाम देना कतई संभव नहीं था।
खैर जो हुआ सो हुआ,अभी भी चेतने का समय है कि पार्टी में व्यक्ति के बजाय यदि विचार को ही सर्वोपरि रखते हुए,अपने मातृ संगठन के हाथों में अपनी डोर को रखा जाय तो कहीं ना कहीं आप राजनीतिक क्षितिज पर अपनी आकांक्षा रूपी पतंग को भविष्य में भी नित नई ऊंचाई पर उड़ाते रहेंगे..वर्ना…वर्ना तो…बहुत कठिन है डगर पनघट की।
अंत में यही कहूंगा कि…
संघे शक्ति सर्वदा
संघम शरणम् गच्छामि
‼️‼️🙏‼️‼️
✍️…..ललित शर्मा


